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उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta bruvantu no nido nir anyataś cid ārata | dadhānā indra id duvaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। ब्रु॒व॒न्तु॒। नः॒। निदः॑। निः। अ॒न्यतः॑। चित्। आ॒र॒त॒। दधा॑नाः। इन्द्रे॑। इत्। दुवः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:4» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर ने फिर भी इसी विषय का उपदेश मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो कि परमेश्वर की (दुवः) सेवा को धारण किये हुए, सब विद्या धर्म और पुरुषार्थ में वर्त्तमान हैं, वे ही (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का उपदेश करें, और जो कि (चित्) नास्तिक (निदः) निन्दक वा धूर्त मनुष्य हैं, वे सब हम लोगों के निवासस्थान से (निरारत) दूर चले जावें, किन्तु (उत) निश्चय करके और देशों से भी दूर हो जायें अर्थात् अधर्मी पुरुष किसी देश में न रहें॥५॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को उचित है कि आप्त धार्मिक विद्वानों का सङ्ग कर और मूर्खों के सङ्ग को सर्वथा छोड़ के ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये कि जिससे सर्वत्र विद्या की वृद्धि, अविद्या की हानि, मानने योग्य श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार दुष्टों को दण्ड, ईश्वर की उपासना आदि शुभ कर्मों की वृद्धि और अशुभ कर्मों का विनाश नित्य होता रहे॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

अन्वय:

य इन्द्रे परमेश्वरे दुवः परिचर्य्या दधानाः सर्वासु विद्यासु धर्मे पुरुषार्थे च वर्त्तमानाः सन्ति, त उतैव नोऽस्मभ्यं सर्वा विद्या ब्रुवन्तूपदिशन्तु। ये चिदन्ये नास्तिका निदो निन्दितारोऽविद्वांसो धूर्ताः सन्ति, ते सर्व इतो देशादस्मन्निवासान्निरारत दूरे गच्छन्तु, उतान्यतो देशादपि निःसरन्तु, अर्थादधार्मिकाः पुरुषाः क्वापि मा तिष्ठेयुरिति॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अप्येव (ब्रुवन्तु) सर्वा विद्या उपदिशन्तु (नः) अस्मभ्यम्। (निदः) निन्दितारः। ‘णिदि कुत्सायाम्’ अस्मात् क्विप्, छान्दसो वर्णलोपो वेति नलोपः। (निः) नितराम्। (अन्यतः) देशात् (चित्) अन्ये (आरत) गच्छन्तु। व्यवहिताश्चेत्युपसर्गव्यवधानम्। अत्र व्यत्ययः। (दधानाः) धारयितारः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) इतः। ईयते प्राप्यते। सोऽयमिद् देशः। अत्र कर्मणि क्विप्। ततः सुपां सुलुगिति ङसेर्लुक्। (दुवः) परिचर्यायाम्॥५॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैराप्तविद्वत्सङ्गेन मूर्खसङ्गत्यागेनेत्थं पुरुषार्थः कर्त्तव्यो यतः सर्वत्र विद्यावृद्धिरविद्याहानिश्च मान्यानां सत्कारो दुष्टानां ताडनं चेश्वरोपासना पापिनां निवृत्तिर्धार्मिकाणां वृद्धिश्च नित्यं भवेदिति॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी आप्त धार्मिक विद्वानांची संगती करून मूर्खांची संगती पूर्णपणे सोडून असा पुरुषार्थ केला पाहिजे की, ज्यामुळे सर्वत्र विद्येची वृद्धी, अविद्येची हानी, माननीय श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार, दुष्टांना दंड, ईश्वराची उपासना इत्यादी शुभ कार्यांची वृद्धी व अशुभ कर्मांचा नित्य विनाश होत राहावा. ॥ ५ ॥